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रिश्तों की एक परिभाषा होना ज़रा मुश्किल है...
लेखनी के इस सफर में,
कुछ चहरे ऐसे मिले है,
पर्दे हो या हकीकत
जिन पर मैं विश्वास कर सकू
जैसे अपने से ही लगते हैं।
कई पिता सी शख्सियत मिली, तो कई माँ की ममता सा दुलार।
कई बहन सा आदर तो किसी में भाई सा प्यार।
रिश्तों की कोई एक परिभाषा होना ज़रा मुश्किल है।
कहीं कोई आँख नम तो नहीं है,
कहीं छिपा हुआ कोई गम तो नहीं है,
मुझे सही और गलत में फर्क समझाने वाली,
वो हर शख्सियत जो मेरे जीवन में रही है,
पर्दे हो या हकीकत अपनों सी ही लगती है।
रिश्तों की कोई एक परिभाषा होना ज़रा मुश्किल है।
अपना-पराया भुलाकर,
जिसने भी गम और खुशी बांटी है,
वो रिश्ते, सुकून के रिश्तों से कम तो नहीं है।
वो रिश्ते ,खून के रिश्तों से कम तो नहीं है।
© मनीषा मीना
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