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एक असम्भव प्रेम गाथा अनन्त में।। टिप्पणियां
वह जो खड़ी थी उस -
आशियाने ए बाजार के जगमगाते हुए उस मेले में,
किसी ने उससे कुछ पूछा भी नहीं,
ऐसा क्यों -
हां मैं कहता हूं कि वह जो खड़ी थी -
उस आशिने ए बाजार की उन गलियों में ,
उस जगमगा ते हुए मेले की बाजार की उस हुस्न की मंडी में जहां उसे देखा भरे बाजारियों ने मगर -किसी ने कुछ पूछा नहीं -
तो क्यों नहीं पूछा -
तो और क्या था उस आशिने ए बाजार की उन हुस्न की मंडी से भरी मलिकाओ के अलावा -

उस बाजार में जाने वाले हर व्यक्ति ने क्या क्या देखा।।
देखा रंग ,देखी जवानी ,देखी अनेक हुसनबी,
मगर किसी नहीं पूछा कि विभकितश्रोत लिगश्रोथ कालश्रोथ जातिश्रोत क्या है -
देखी मजबूरी उन वेशया के उतरते हुए कपड़ों में -
जो भी किसी थी बहन, किसी थी बीवी,किसी बेटी, किसी की बहू मगर इस कलियुग में इच्छा व स्वार्थ के अस्थाई तथा असमर्पण तथा प्यार,तथा असतिव में होकर स्त्रीत्व व नारीत्व को समर्पित बनकर स्वयं की ही लोकोक्तियों को स्वांग नाट्य रूपांतरण चित्रण घोषित कर देती है।।

मगर कहीं ना कहीं उनके इस जगह जाने का श्रय
हमें यानी कि हर नपुंसक को जाता है,
क्योंकि कलियुग का हर शख्स लोभ रहित है जिसे केवल शारीरिक संबंध स्थापित करके उसके नारित्व व स्त्रीत्व को समाप्त कर उसकी हर लोक्ति को शून्यनिका शून्यनिकाविध्वंकीय सिधिका गोखिका तंत्रिका गाऊलोकिका बतता है।।

मगर उनके होते हुए भी नपुंसकीय नपुंसक दिखा रहा है और कलि को कलि के कलियुग के कलियौता में आहुतिका श्रापिका बनकर बैठकुन्धाम जाकर से वहां से मणिकर्णिका घाट पर स्नान कर वह तंत्रका ए कातिल हसीना ए डायन बनकर हर तरफ विध्वंश इच्छा व स्वार्थ से ग्रस्त कर योनि को किन्नर कल्याणवी का आहार बना रही है वह (नाट्यिका स्वागिंनी नपुंसकीय आहुतिका श्रापिका विध्वंसकीय प्रतिद्वंद्वी।।)।।

इस तरह से क्रीड़ा के चलते भी यह गाथा अनन्त व असंभव में शून्यनिका हिनका नंपुकीय आहुतिका विध्वंसकीय प्रतिद्वंद्वी गोखिका सिधिका स्मारगीय सौदामिनी बनकर स्थापित है।।

कमरों की उस काल कोठरी में से उनकी चीखें निकलने की आवाजें सुनी -आ ओ आ उफ आह आह आह ओह उफ कहरात मगर फिर भी वे मजबूर थी क्योंकि जब वो लुटवाती थी जिस्म,
तब जाकर कहीं हो पता था रोटी सजाने का बसेरा।।

किसी का प्रेम तो किसी की गई ममता तो किसी इज्जत तो किसी का मान तो फिर तब किसी ने क्यों नहीं पूछा नहीं रगं रूप जात पात धर्म कर्म सत्व रज गुण स्वभाव त्याग बलिदान मूल्य समर्पण।।

क्योंकि वो क्यों पूछते नपुंसकीय जो ठहरे।।

अगर हम सोए तो तुम भी होते-
अगर हमने कपड़े उतारे तो तुमने भी निकाले,
अगर हम बाज़ारू तो तुम भिखारी।।

हम तो एक मोहिम है फ़रियाद है -
मगर नपुंतसक हो थे और रहोगे।।

हम बने बाज़ारू ये हमारी मजबूरी भी है,
और कहीं ना कहीं उन दरिंदों की आसीमता को उजागर व स्थिर करने लिए भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी मैंने,
मैं बनी बाज़ारू ये मेरा कोई शौक नहीं -
ये मेरे परिछण का एक अनोखा भाग है जिसे मेरे
प्रेम ने छुना होगा मेरे लिए -
बन बाज़ारू नीलाम हुई ताकि वह आहुतिका -
आहुति ना ले वो कातिल हसीना ए डायन मगर -
यह कालचकृ है जिसको ना तो मैं रूक पाई-
ना ही वह शून्यनिका हिनका क्योंकि कहीं ना कहीं वो बनकर किन्नर कल्याणवी मूर्ति इज्जत व स्वार्थ जगमगाती थी उन आशिने ए बाजार की उन हुस्न की मंडी में जहां वे कालश्रोथ जातिश्रोत लिगश्रोथ विभकितश्रोत सब उसके स्वांग नाट्य रूपांतरण श्रृंखला में बहककर कहीं ना कहीं लापता हो जाते उन आशिने ए बाजार की उन हुस्न की मंडी की खुशबू जो किस्म किस्म
की उन हुस्न की मंडी में उन गलियों में खड़ी उनकी जो भी किसी की कुछ ना कुछ लगती थी।।

यद्यपि सा वेश्यानि समसत्रम् योनीयम् कर्मा बीचम् कादमि समाप्ति तथा यद्यपि सा किन्नर समसत्रम् योनीयम् कर्मा बीचम् समाप्ति भवति।।

यद्यपि साहम् गाथामि असभंवानि तथा अनन्त माई भवति।।

सा समसत्रम् स्वागम्यति भवन्तु दुखिना प्रयलयात्मक विध्वंस देखने को मिलेगा इसलिए यह अलौकिक व असंभव प्रेम गाथा अनन्त में है।।


वह कहती फिरती थी उन आशिने ए बाजार में,
उन रातों में वह कहती फिरती थी उन आशिने ए बाजार के उन आशिकों से की वह एक कागज़ का टुकड़ा क्या था आशियाने ए बाजार की उन मजबूर हसिनाओ से पूछो -
जिसने हर शख्स को मना लिया गुलाम चाहे राजा, चाहे गुलाम, चाहे पूजारी, चाहे गरीब यहां फिर अमीर सब झुकते इसके
समने -यह कागज क्या है माजरा है गाथा ए बाजार के हरम में उन जगह जगह से भिन्न-भिन्न भागों की लोकोक्तियों की खोज ए दास्तान है बना बाजार ए रंगभूमि संग्राम जिसमें हर है "कागज ए म्यान की दस्तक की गुहार।।

अब आइए सुनाती हूं उस आशिने ए बाजार की उन आशिने ए बाजार की गलियों के किस्सों के
पन्ने।।
(लेखिका संग प्रशनवाचक की जोड़ी की आवश्यकता तथा स्पष्टीकरण प्रस्तुत किया गया है।।)

विज्ञापन विषय आलोचना गद्य कोश श्रोत स्तुति
पाठ्य।।
"एक असम्भव प्रेम गाथा अनन्त में कागज़ ए मोहर की आलोचना।।"
वह कहती कि एक स्त्री ने बोया मगर काटा आशिऐ ने कागज की खोज व नोक पर तुमने।।

वह कहती कि मैं भीखरन बनी....
वह कहती कि मैं नौकर बनी...
वह कहती कि मैं वेशया बनी..
जो बनी बनाया एक कागज़ ने..
वह कागज जाने कितने रंग बदलेगा..
उस कागज ने बोए लोक्तियो के श्रोत ..
बनाई हाजार लोकोक्तिय जिनके अनेक तात्पर्य ।

वह कहती हैं कि -काई बार तुम्हें पढ़ते हुए ,
मैं ख्यालों के समंदर में -
डूबने उतरने लगती हूं ।।
तुम्हारी गाथा के इस मंजर,
मुझे कसकर थाम लेती है।।
और स्वांग ए बाजार के इस गाथा की नाट्य रूपांतरण श्रृंखला में।।

और इस स्वांग ए तट पर लाकर ,
छोड़ नहीं जाती ,
बल्कि मेरे साथ ही,
वहीं बैठ जाती है।।

वे मुझे किस्से सुनाती हैं उन आशिने ए बाजार में
उन स्वागिंनी नपुंसकीय आहुतिका श्रापिका के पन्नों का-
उस नीली चिड़िया के,
जो तुम्हारे दिल में छुपकर बैठी हुई थी,
जिसे तुम इस डर से बहार नहीं आने देते -
कि तुम्हारी रचानाओं को नुक्सान ना पहुंचा दे,
काम ना बिगाड़ दे,
जिस पर तुम ले रूप नपुंसकीय का,
व्हिस्की उड़ेल दिया करते हो,
और तमाम वेश्याएं ,
तमाम साकी ,
तमाम किराने के दुकान के मालिक ,
ये नहीं जानते कि वह नीली चिड़िया ,
तुम्हारे दिल के कोठरे में ,
न जाने कब से बंद है,

तुमने सचमुच में उस प्यारी नीली चिड़िया पर,
बहुत जुल्म किया ,
वह हौले हौले गीत गा रही थी,
हा गा रही थीं कुछ ,
जिसे किसी ने नहीं सुना,
जिसे सिर्फ तुमने सुना,
तुमने ही समझा,
उसे मरने नहीं दिया,
और तुम दोनों ,
यूं ही सोते रहे ,
उसने तुम्हारे सब राज़ छुपा रखे थे ,


तुम नहीं चाहते थे इस दुनिया में,
कोई भी किसी से ,
नफ़रत करे,
फिर भी लोगों ने नफरत की,
तुम्हारी शक्ल से,
मेरी शक्ल से,
हम सब की शक्ल से,
क्योंकि उन्हें अपनी शक्ल से भी प्यार नहीं था,


तुम जानते थे,
इस दुनिया में अमीर खुश नहीं,
न ही वंजित
यहां कोई किसी से प्यार नहीं करता,
पर तुम्हारे मस्तिष्क ने तुम्हें,
पल भर भी,
चैन नहीं लेने दिया
तुम बेचैन हो उठते ,
राते जाकर बिताते ,
और देर तक टाइपराइटर ,
पर उंगलियां टिपटिपाते,
तुम्हारी उन कविताओं में,
वो वैशयाए थी जिनसे तुम्हें प्रेम की उम्मीद की,
दलाल थे,
कवि थे ,
प्रकाशक थे,

उनकी मांए, पत्नियां , दोस्त,भाई सब थे,
जिनसे तुमने कभी कोई उम्मीद नहीं की,।।

सभी ने तुम्हें निराश किया
सभी को तुमने धिक्कारा
अपनी गाथा में उन्हें बार बार लताड़ा,
तुम्हारी उंगलियां और टाइपराइटर के बीच ईमान का रिश्ता था ।।
एक वेशया ने कभी तुम्हे भाव नहीं,
उसने सिर्फ एक समझौता किया।।
परमात्मा की आत्मा की आसीमता स्वांग नाट्य रूपांतरण श्रृंखला -सवागिंनी 🙏🪔☝️🐄🐦


इसलिए वह कहती कि कागज ए उम्मीद ही उस
स्वागिंनी गुनम्यादिनी का स्तंभ।।

#स्वागिंनी🐦🐄💀