...

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परख (नज़्म)
तुमने ये कहा मुझसे तुम मुझे समझते हो
ये बड़ा अजब है कि मैं समझ नहीं पाता
जो भी तुम समझते हो
कैसे तुम समझते हो
जब कोई ये कहता है ,मुझको वो समझता है
मेरे मन में दफ़ 'अतन ये सवाल आता है
कैसे वो समझता है
कैसे वो ये कहता है
मुझको वो समझता है
बात जब ये निकली है
मैं भी कुछ कहूंगा अब
इस जहाँ में कोई भी कब किसे समझ पाया
जिस ने भी किया दावा
झूठ ही किया अब तक
तुम भी ऐसा कहते हो
क्या है सच ख़ुदा जाने
मुझको ऐसा लगता है
कुछ नहीं समझते तुम
तुम तो बस परखते हो
और ये हक़ीक़त है इस तरह परखने से
दूरियाँ ही बढ़ती हैं
दिल नहीं मिला करते
मशवरा यही है के
तुम मुझे समझना मत
फिर कभी परखना मत
गर मझे समझते हो

शाबान नाज़िर -



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