...

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मैं
मैं सबके दिए हुए दर्द-ए-दिलों का शज़र हो रहा हूं
एक छोटा सा, दुबका हुआ गमगीन शहर हो रहा हूं

जो करते थे पाने की हरवक्त फरियाद मुझको
अब न जाने क्यों मैं उनके ऊपर ही कहर हो रहा हूं

मुझको समझाते थे सब,कहते थे ऐसा न कर
न जानें क्यों मैं अपने आप पर ही बेअसर हो रहा हूं

जो कहते हैं बहुत जल्द बदल गया रवैया मेरा
उनको बताओ कि मैं कैसे इस जिंदगी में गुजर कर रहा हूं

कभी हंसता खिलखिलाता महफिल-ए-जान था मैं
अब न जाने क्यों उल्लासों से कलाश एक नहर हो रहा हूं

अभी भी अगर खुश नहीं हुए हैं वो मौला
तो कहदो जरा उनसे कि अंदर ही अंदर मैं जहर रहा हूं

© प्रांजल यादव

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