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मेरी मंज़िल
‌मेरी मंज़िल

‌रुके रुके से कदम बढ़ रहे इस तरह जैसे मिल गयी हो मंज़िल उन्हें जाने कब से रुके थे इंतज़ार में अब जाकें मिली मंज़िल ! आये जब मंज़िल की ओर एक अलग ही मंज़र था ना अक्स रुक रहे थे ना कदम ! जैसे कदम बढ़ रहे थे दिल की धड़कन हो रही थी तेज़ केह रही हो जैसे अब जो मिली मंज़िल ना छोड़ेंगे हम! फिर क्या था मिल ही गयी मंज़िल उन्हें रुक गए कदम चल रहे है आज अपनी मंज़िल को लेके साथ बनके हम क़दम !

‌शालिनी तंवर रघुवंशी