...

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तो क्या दोषी हूँ मैं?
गर मेरी यादों में कोई पागल देर तक जागती है।
समाज का हर बन्धन दर-ओ-दीवार लाँघती है।
फ़क़त प्रेम ही समाया है जिसकी नस - नस में,
हर रिश्ता तोड़कर वो गर मुझे भगवान मानती है।
तो क्या दोषी हूँ मैं?

सामाजिक बेड़ियों को गर कोई काटना चाहती है।...