...

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कविता
कुछ न करके
मैं बहुत कुछ करता हूँ
कतरे की कीमत में
मैं दरिया खरीदता हूँ

मैं देखता हूँ,
फफक फफक कर
पत्थर रोते हैं

सहराओं के सीने से
आब निकलते हैं

खंडहर उठने,भागने
दौड़ने लगते हैं

खुश्बूओं पर
खुश्बूओं की कई परतें
चढ़ जाती हैं

नन्हीं नन्हीं उंगलिया
परबत उछालने लगती हैं

कतरों को
निचोड़ने पर समंदर निकलता है

बंदर, कछुआ ,छिपकली
कहानी, जोश, मुकाम
बताने लगते हैं

सुखन का कलम
घड़ी की सुई बनकर
टिक टिक करने लगता है।

कुछ न करके
मैं बहुत कुछ करता हू
बैठे बैठे ही
मैं दुनिया देखता हूँ।

मैं 'जर्जर'
'नाकाम' को पढता हूँ





© जर्जर