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स्वीकार नहीं होता:-
नहीं होता मुझे स्वीकार देखकर
घरों में पति पत्नी के बीच मालिक नौकर सा व्यवहार।
नहीं लगता मन को अच्छा कि दिन भर घर के कामों में दौड़ दौड़ कर ना जाने कितने किलोमीटर चल जाने वाली औरत नहीं पाती अनिवार्य, आवश्यक, सांसों की तरह जरूरी सम्मान।
नहीं अच्छा लगता मुझे ऑफिस में दिन भर आमदनी बढ़ाने,घर की जरूरतों को पूरा करने की जुगत लगाती औरत को वापस लौटने पे नहीं मिलता कोई साथी काम में हाथ बटाने को।
आत्म-चेतना नहीं स्वीकार कर पाती कि ढलते जीवन में, साठ वर्ष तक जीवन के हर अच्छे बुरे दौर से गुजरने के बाद,अकेली पड़ती वृद्ध होती वो स्त्रियां मुंह
ताकती कि पति इज्जत से करे बात ,ना लगाएं बात बात पर तानों की झिड़की, अपनी उम्र की तरह लिहाज करें मेरे भी कम होते वर्षों का।
मुंह ताकती बच्चों का कि हमें कोई दे सहारा धन लेकर हमसे।
और हां इसलिए बिल्कुल अच्छी नहीं लगती वो स्त्रियां जो वकालत करती की चुप रहो
जहां रहना नहीं चाहिए चुप।
मुंह से आवाज़ भी ना निकालो लोग क्या कहेंगे।
इतनी तो कट ही गई थोड़ी सी और काट लो औरत हो थोड़ा दब के चलो।।
समीक्षा द्विवेदी
© शब्दार्थ📝
घरों में पति पत्नी के बीच मालिक नौकर सा व्यवहार।
नहीं लगता मन को अच्छा कि दिन भर घर के कामों में दौड़ दौड़ कर ना जाने कितने किलोमीटर चल जाने वाली औरत नहीं पाती अनिवार्य, आवश्यक, सांसों की तरह जरूरी सम्मान।
नहीं अच्छा लगता मुझे ऑफिस में दिन भर आमदनी बढ़ाने,घर की जरूरतों को पूरा करने की जुगत लगाती औरत को वापस लौटने पे नहीं मिलता कोई साथी काम में हाथ बटाने को।
आत्म-चेतना नहीं स्वीकार कर पाती कि ढलते जीवन में, साठ वर्ष तक जीवन के हर अच्छे बुरे दौर से गुजरने के बाद,अकेली पड़ती वृद्ध होती वो स्त्रियां मुंह
ताकती कि पति इज्जत से करे बात ,ना लगाएं बात बात पर तानों की झिड़की, अपनी उम्र की तरह लिहाज करें मेरे भी कम होते वर्षों का।
मुंह ताकती बच्चों का कि हमें कोई दे सहारा धन लेकर हमसे।
और हां इसलिए बिल्कुल अच्छी नहीं लगती वो स्त्रियां जो वकालत करती की चुप रहो
जहां रहना नहीं चाहिए चुप।
मुंह से आवाज़ भी ना निकालो लोग क्या कहेंगे।
इतनी तो कट ही गई थोड़ी सी और काट लो औरत हो थोड़ा दब के चलो।।
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