...

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तुम्हे पाने की ख़्वाहिश
अब तुझे खोने का डर है ,ना पाने की ख़्वाहिश,
इश्क़ मिरा कब का , दम तोड़ गया है,

चुभने लगी हैं अब तो , नज़रें ज़माने की,
नाउम्मीदी से रिश्ता , अब तू जोड़ गया है,

कब तलक रखूं उन अरमानों से नाता,
जिन अरमानों को बिलखता , तू छोड़ गया है,

चलती रही है बवालों की आँधी, इश्क़ पर मिरे,
हर युग ,हर सदी, ये जहां इश्क़ को झंझोड़ गया है,

बिखरी है अब तो राख ,मिरे इश्क़-ए-वजूद की,
वक़्त आँखों मे मिरी अश्क़ , निचोड़ गया है,

टूटे हैं इस क़दर हम ,कि शायद ही सम्भल पाएं,
कम्बख़्त मुक़द्दर ही, बाँह इश्क़ की मरोड़ गया है।।

-पूनम आत्रेय