...

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हाशिया....

विचलित होते होते मन
अंततः स्थिरता पा गया
अनुत्तरित प्रश्नों का उत्तर
समय देता चला गया
अंतर्द्वंद्व को भी मिल गई थाह
हाशिये पर कुछ ऐसे रखा गया

मिथ्या का चमकीला आवरण अप्रतिम
जो सत्य स्वत: उभर के आ गया
लक्ष्मण रेखा बस हाशिये की थी
वो उस रेखा में भी अपार पा गया

भ्रम था मुझे भी अपने होने का
अनुपस्थिति देख अपनी तो चूर हो गया
मृत घोषित करने में लगा था जग सारा
जीवन ये नया स्वरूप पा गया

असीमित समर्पण को मिला मापदंड
अवहलेनाओं से पुरस्कृत किया गया
निरर्थक ना रहा मेरा हाशिये पर होना
अंतर्मन मेरा और विस्तृत होता गया

© vineetapundhir