...

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चलती-फिरती लाश
हम बढ़ रहे हैं,
अग्रसर हैं विकास की ओर।
सबसे तेज़ बढ़ती अर्थव्यवस्था
के भागीदार हैं।
मगर, मगर किन मूल्यों पर
बढ़ रहे हैं हम।

उधर कोई बेटी शिकार हो गयी,
कुछ दरिंदो की हवस का।
तार-तार हो गयी उसकी आबरू,
हम निर्लज्ज मूकदर्शक बन खड़े रहे।
मगर,हम बढ़ रहे हैं।

अस्पताल की खाट पर पड़ा,
वो लड़ता रहा ज़िन्दगी की जंग
वो जूझता रहा
हम तमाशा करते रहे।
वो तील तील कर मरता रहा।
हम तस्वीरों में व्यस्त रहे।
उसने मौत का दामन थामा
हमने ख़ामोशी का।
मगर हम बढ़ रहे हैं।

सड़क किनारे पड़ा कोई खून के
आँसू रो देता है।
कोई भूख में तड़प अपनी जान देता है।
दहेज़ के चँगुल में,
कोई बाप आत्मदाह को विवश है।
भ्रूणहत्या,जिस्मफरोशी अपनी
चरम पर है।
धर्म-विरोधी ताकते तत्पर हैं,
पैर पसारने को।
मानवता की परिभाषा बदल गयी है।
मगर हमे क्या सरोकार इनसे,
हम तो बढ़ रहे हैं।

सरकारी दाँव-पेंच में उलझ
प्रगति अधर में लटक जाती है।
झूठी दलीलों में फंस,
न्याय की नैया मंझधार में अटक जाती है।
किसी के जख्म देख हमारा,
कलेज़ा नही पसीजता।
असहायों पर होते जुल्म से,
खून नही खौलता हमारा।
मगर हम विकास के मार्ग पर अग्रसर हैं।

गला घोंट दिया है हमने,
इन्सानियत का।
मृत हो चुकी है आत्मा।
हाँड-माँस का पुतला ओढ़े
चलती-फिरती लाश रह गए हैं ।
मगर हम तो बढ़ रहे हैं।