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पूछा करतीं हूं खुद ही से।
#दर्पणप्रतिबिंब
मिलती हूं जब आईने में खुद ही से...
तो पूछा करती हूं कुछ सवाल
क्या हूं मैं कोई खिलौना?
जो सब तोड़कर चले जाते हैं।
या हूं मैं कोई मेला ?
जो सब थोड़ी देर ठहर कर वापस लोट जाते हैं।
या नहीं हैं मेरे अंदर कोई जज्बात?
की जिसका जो मन करता है बस बोल जाते हैं।
पर हुआ बस अब बहुत....
बन चुका जिंदगी का खेल बहुत ....
नहीं करना भरोसा अब किसी पे...
काफी हूं मैं अब खुद ही में।
© Rimjhim
मिलती हूं जब आईने में खुद ही से...
तो पूछा करती हूं कुछ सवाल
क्या हूं मैं कोई खिलौना?
जो सब तोड़कर चले जाते हैं।
या हूं मैं कोई मेला ?
जो सब थोड़ी देर ठहर कर वापस लोट जाते हैं।
या नहीं हैं मेरे अंदर कोई जज्बात?
की जिसका जो मन करता है बस बोल जाते हैं।
पर हुआ बस अब बहुत....
बन चुका जिंदगी का खेल बहुत ....
नहीं करना भरोसा अब किसी पे...
काफी हूं मैं अब खुद ही में।
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