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ग़ज़ल
जब भी तन्हा हुआ हूं रातों में,
ख़ुद को पाया हूं तेरी यादों में।
चाह मंज़िल की अब मैं क्या करता,
कट गई ज़िन्दगी जो राहों में।
अब रहा वास्ता नहीं उससे,
फिर क्यों आता है मेरे ख़्वाबों में।
उनकी चर्चा चली तो याद आया,
रख के भूला हूं कुछ किताबों में।
यूं तो रुखसत हुआ वो हंसते हुए,
फिर भी देखा नमी थी आंखों में।
अब वो दीवानगी नहीं लेकिन,
है कसक उसकी दिल के कोनों में।
दूर मुझसे है जा चुका लेकिन,
रोक रक्खा हूं उसको यादों में।
© शैलशायरी
ख़ुद को पाया हूं तेरी यादों में।
चाह मंज़िल की अब मैं क्या करता,
कट गई ज़िन्दगी जो राहों में।
अब रहा वास्ता नहीं उससे,
फिर क्यों आता है मेरे ख़्वाबों में।
उनकी चर्चा चली तो याद आया,
रख के भूला हूं कुछ किताबों में।
यूं तो रुखसत हुआ वो हंसते हुए,
फिर भी देखा नमी थी आंखों में।
अब वो दीवानगी नहीं लेकिन,
है कसक उसकी दिल के कोनों में।
दूर मुझसे है जा चुका लेकिन,
रोक रक्खा हूं उसको यादों में।
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