...

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मैं किरदारों में ढ़ल गई.........
मैं ना जाने कितने किरदारों में ढ़ल गई
धीरे - धीरे से मैं हिस्सा-दारों में ढ़ल गई
कोरे कागज की तरह थी ये ज़िंदगी मेरी
शब्द - शब्द बनकर अख़बारों में ढ़ल गई

हर वक़्त, हर पल इक नए कहानी हूं मैं
पढ़ते-पढ़ते मैं सब की आँखों में ढ़ल गई
बदलते किरदारों की इक कीमत होती है
खेल तमाशो के साथ बाज़ारों में ढ़ल गई

मिजाजों का ज़िक्र...