...

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सबब
कभी सच कभी झूठ, कभी गुनाह कोई,
सबब अंधियारे का, इसी से जोड़ लेते हैं,

करके कुकर्म लोग कैसे रात के अंधेरों में,
ख़ुद को सच्चा साफ़ सुथरा कह लेते हैं,

मुलजिम ज़ख्म-ओ-दर्द छिपा लेता है अपने,
रजनी का सहारा कुछ ऐसे ले लेता है,

मरता है पल-पल मगर, तकिये से मुंह दबा,
तिमिर में मौत को बेतरतीब जी लेता है,

मै अंधेरों का आभार करूँ,जो है साथ दर्द के,
रिसते रहते हैं हम जो इसे आगोश में भर के,

ज़िंदगी है यही,ज़रूरी है उजालों का भी ढलना,
बिना अंधियारा जिए कैसे कोई इस सफ़र में।
© khwab