...

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विरोधी स्वयं के!!!
अपने... विरोधी
नाते... विरोधी
जग... विरोधी
कभी कभी हम भी विरोधी स्वयं के!!

तदोपरान्त साथ है फिर भी तेरे ....
वो जीर्ण सा विश्वास...
मरी मरी सी आस...
अवचेतन हृदय...
स्वप्न बिखरते....
और साथ है सदा...
एक वो शक्ति...
जो असीमित है...
अदृश्य है...
निराकार है...
साक्षात्कार करवाती तेरा स्वयं से!!
जाग्रत होती जो अंतर्मन से!!

राहें मिले फिर चाहे कैसी
अवरोधक बने फिर चाहे कोई
सँग-साथ कोई हो ना हो
रोक ना स्वयं को अब बेड़ियों में तू
जीर्ण सा...
मद्धम सा...
गिरता सम्भलता...
एकाकी बस तू चलता चल...
बस उस अपरिमित शक्ति का थामे हाथ..
अनंत और अनंत बस चलता चल!!!!

© vineetapundhir