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एक नज़्म-कैलेंडर
दरवाजे के बाहर
दस्तक दे रहा है
नया साल,
और बीता हुआ बरस
सर झुकाए
ख़ामोशी से
अपना बोरिया बिस्तर बाँधकर
हमसे विदा ले रहा है ।

कैलेन्डर का आखिरी पन्ना
इस आखिरी घड़ी में
बड़ी हसरत से
घर की उस दीवार को
नम आँखों से देख रहा है
जिस पर उसने
एक बरस की
अपनी ज़िन्दगी गुज़ारी ।

पंखा ख़ामोश है दिसंबर की सर्दी में,
कैलेंडर को याद आ रहा है
गर्मियों में उसकी हवा के साथ
अठखेलियाँ करते हुए ,
कैसे छिल जाता था
दीवार का बदन
और दीवार सह लेती थी
अपने जिस्म के खरोंचों को,
ख़ुशी ख़ुशी
माफ़ कर देती थी
कैलेंडर और पँखे
दोनों को ,
एक माँ की तरह ।

ये दीवार अब
जान गई है कि
कैलेंडर का साथ अब
चंद लम्हों का है ,
जल्द हटा दिया जाएगा
पुरानी तारीखों को
अपने में समेटे हुए
उस कैलेन्डर को
जिसे उसने साल भर
अपनी गोद में पनाह दी है ।

कल
नई उम्मीद
नई आशा लिए
टंग जाएगा
दीवार में फिर एक नया कैलेन्डर

फिर साक्षी बनेगा वो
कहीं किसी के घर में
गूंजने वाली
नन्हीं किलकारियों का,
कहीं अपनों से बिछडने के
मातम और गम का ।

इस वर्ष फिर
किसी की किस्मत का तारा चमकेगा
किसी के सितारे गर्दिश में होंगे
कोई उभरेगा
और कोई डूबेगा ।
कैलेंडर की तीन सौ पैंसठ तारीखों में
कई ज़िन्दगियाँ
और कई मौतें लिखी हैं
और जो इस साल रुख्सत हो जाएंगे
उन्हें अभी इस बात का
अहसास भी नहीं है
कि ये साल उनकी जिंदगी का
आख़िरी साल है ।

कैलेंडर बदलने का सिलसिला
चलता ही रहेगा
जब तक ये वक़्त ठहर नहीं जाता
और वक़्त को रोकना
न तो दीवार के न ही कैलेन्डर के वश में है ।

मगर हमारे वश में
ये ज़रूर है कि
पुराने कैलेंडर को ख़ुशी से विदा करें
और
अपनी उदास, सूनी दीवार पर
फिर से टांग दें
एक नया कैलेंडर ।

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