आराधना
हजारों अनकहे जज़्बात लिए घूम रही हूं,
किस पर करूं उजागर इन्हें दिन रात सोच रही हूं।
जो था मेरा कल आज पराया सा लगता है,
मैं तो कब का दूर हो चुकी ,दिल में उसके कोई और ही बसता है।
साथ आज भी हूं उसके, शायद उसकी कोई मजबूरी हो।
दूसरी मोहब्बत से डरता है या साथ रहना उसका जरूरी हो।
पहली मोहब्ब्त न बन सकी मैं उसकी ,न ही आख़िरी,
मौत को भी गले लगा नहीं सकती ये मेरी कैसी मजबूरी?
भीड़ में हर पल खुद को अकेला पाती हूं,
अक्सर रोता है दिल, मैं फ़िर भी...