...

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उम्मीद
जितने चाहे आहट हो जा,
चाहे लागे अंत सफर का,
नामुमकिन की थाम लकुटिया
कभी चिढ़ाये भले निज सपना
त्यागे या फिर नगर जो अपना
भेंट तो होगी नित नवीन से
भेष भी होगा हर दिन अरभंगा
ठिनक जायेगा कभी कोई तारा
आएगा कही आशाओ का झोका
रोष ,कपट निज ग्लानि भावना
कभी डुबाएगा सागर गहरा
संग्राम चलेगा अस्तित्व का ऐसा
छलनी होगी खुद से आत्मा
त्रासदी मे बिखर कही पर
सिसकी भरेगी नयनो की निद्रा
उपदेश का मरहम न होगा कारगर
दंभ भरेगा समझदार जग
चलने से संघर्ष डरेगा
प्रस्तरो सा बिखर न फिर भी
फिर खड़ा हो त्यज कर लज्जा
निज श्वासो की साधना कर
बिसराकर अब सारी डगरिया
चलना नित बांह थाम उम्मीद का।