...

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अनंत
उन्मुक्त हुं , आजाद हूं
'स्वतंत्र' हूं मैं
हवा का एक झोंके सा
उत्स्फुर्त , मस्त हूं मैं !

अपने 'राहें' जानता हूं
'अस्तित्व 'को पहचानता हूं
किसी भी 'भ्रम' से
मैं बाधित नहीं
किसी सहारे का
मैं आश्रित नहीं !

सभी मेरे है और
मैं सभी का हूं
पर व्यर्थ है मुझको
बांधने की चेष्टा
क्योंकि न तो मैं
'बंधनों 'का हूं
न 'आकर्षणों' का !

'छद्म भाव '
अब भाते नहीं
'भटकाव '
अब भटकाते नहीं
न बोझ है , न दबाव है
बस बहाव ही बहाव है !

एक ही आस है
एक ही विश्वास है
'अनंत' की जो
प्यास है
वह पुर्ण होगी
जिस सागर से
उपजी थी बुंद
उस सागर में ....
विलीन होगी ।।

- स्वरचित २०.१०.२०२०
© aum 'sai'