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वर्गीकरण
धर्म के आधार पर, जातियों के आधार पर, महिला-पुरुष के आधार पर, क्षेत्रीयता के आधार पर, रोजगार-आजीविका के आधार पर, मान्यताओं-सभ्यताओं के आधार पर, पद-पूंजी-प्रतिष्ठा के आधार पर, प्रायिकता के आधार पर, महत्ता के आधार पर, पूर्वाग्रह के आधार पर... आखिर अंतर करने की जरूरत क्या है... क्यों विभाजन करने की, वर्गीकरण करके किसी एक वर्ग को श्रेष्ठ या दयनीय अथवा निंदनीय प्रदर्शित करने की जरूरत है... क्यों ये प्रस्तुत करना आवश्यक है कि कोई एक वर्ग अन्य से श्रेष्ठ अथवा पीड़ित है... आखिर क्यों संतुलन एक मुख्य केंद्र बिंदु नहीं हो सकता है... क्या यह ज़रूरी है कि पहले किसी वर्ग को पीड़ित करके फिर उसे संतुलन प्रदान करने हेतु अन्य वर्ग को पीड़ित किया जाए, और निरंतरता के साथ इसी क्रम को दोहराया जाए और क्रमशः दोहराते रहा जाए... आखिर दया, लाभहानि, सुविधा, सम्मान, यहाँ तक कि न्याय को भी वर्गीकरण निहित विचारधारा, पसंद अथवा अनुमान के अंतर्गत भेदभाव के आधार पर नहीं बल्कि व्यक्तिगत परिस्थिति, सही-गलत, तर्क, आवश्यकता और नैतिकता के पैमाने के आधार पर क्यों नहीं प्रस्तुत किया जा सकता... विचित्र है, किन्तु इंसान संतुलन देखना ही नहीं चाहता, वह केवल वर्गीकरण चाहता है, ताकि अपनी सुविधा और विचारधारा के आधार पर वो एक वर्ग में शामिल होकर स्वयं को दूसरों से बेहतर महसूस कर सके......
© cursedboon