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घुटी सी ज़िंदगी
घुटी सी ज़िंदगी सबकी, ये काला आसमां है
परेशां आदमी ही आदमी से, खामखां है
दिखावे की झलक में हो गए, शामिल सभी जो
नुमाइश झूठ की, भीड़ों में खाली वो शमां है
जरा उस दाग़ को धुल लो, तो बातें साफ़ सुथरी हों
तुम्हारे मन में इज्ज़त का, जो सदियों से जमां है
दिखी औरत कोई सुंदर, तो नजरें झांकती हैं
बदन के काम में खोकर, उसे जो नापती हैं
तुम्हें उस वक्त इज़्जत की, फिक्र क्यों कुछ नहीं होती
ये आंखें उसके चेहरे से, उसे जो आंकती हैं
वो छोटी जात से जो, छूत का बर्ताव करते हो
उसी से मिलके चेहरे पे, खुशी का भाव करते हो
अगर बिस्तर पे सो जाए, तो सब कुछ भूल जाते हो
ये कैसे पैंतरे खाली, ये कैसे दांव करते हो
कोई रस्ते पे नंगा हो, तो ठोकर मारते हो
मगर क्यों घर का नंगापन, नहीं तुम भांपते हो
सिर्फ़ शक्लों से तय होते हैं, रिश्ते आज कल
कभी उसमे भी अन्तर्मन, को थोड़ा जांचते हो
आज भी कितने ही भूंखे, खुले बादल में सोते हैं
आज भी कितने ही बच्चे, गलत राहों में खोते हैं
आज भी कितने बापों की, जमीनें हैं पड़ी गिरवी
आज भी कितने पिछड़े जन, गलत शोषण में रोते हैं
कभी सोंचा उन्हें कुछ देखकर, खुद से कभी पूंछा
ये कितने दिन से प्यासा है, ये कितने दिन से है भूंखा
भगत सिंह बनके सड़कों पे, निकलने से अगर होता
तो फिर ये देश इतने दिन, गुलामी में नहीं सोता
सिर्फ़ तस्वीर, नारों से, नहीं सूरत बदलती है
पड़े हैं लाख पत्थर पर, नहीं मूरत बदलती है
बदल जाता है सब कुछ, हौंसला हो जो बदलने का
मगर एक रात बारिश से, नहीं लहरें बदलती हैं .....
© Er. Shiv Prakash Tiwari