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खेजड़ली बलिदान
सन सतरासे तीस में,माह सितम्बर जान।
अनुपम घटना घटगई,अद्वितीय बलिदान।।
महल के तामीर की, दरबार में चली।
वस्तुएं जो काम आए,होनी चाहिए भली।
मिस्त्री बोला झुकाकर शीश राजन विनय मेरी।
चूना पकाने के लिए चाहिए ईंधन घनेरी।
राज्य हित में कीजिए, प्रबंध इस का मंत्रीवर।
दासगिरधर था भंडारी,बोला वचन करजोड़ कर।
नगर निकट पूरब दिशा में लगे पेड़ है खूब सारे।
हो इजाजत तो हे राजन, काट लाएं पेड़ सारे।
जाइये भंडारी गिरधर, समय मत वृथा गवाओं।
लाइये ईंधन यहाँ पर, जल्दी से चुना पकाओ।
सैनिकश्रमिकदल साथलेकर टुकड़ी वहांसे चलपड़ी।
आकर रुकेवे लोग जहाँपर,लहरा रहीथी खेजड़ी।
खेजड़ी वो पेड़ है,मरू मे कल्पतरू है सदा।
अवलम्ब जीवनका रहा,पालक रहा नरका सदा।
पत्तियाँ से जानवर,अपनी मिटाते हैं क्षुधा।
जिसकी फली है सांगरी औषधी, भोजन सदा।
जहाँ खेजड़ी के पेड़थे,बसती वहां एक जाति थी।
जीवजंगल केथे रक्षक,प्रकृति उन्हे सुहाती थी।
उनके गुरु जंभदेवने,उनके पुरखों से कहा।
मूक पशु और जड़तरू पर राखिये उरमें दया।
पेड़ पशु में प्राण है,तुम रक्षा करना चाव से।
प्रेम से रहना जगत में,आपसी सदभाव से।
राज्यदल ने शुरू किया,वहाँ खेजड़ी को काटना।
नासमझ थे था असंभव वहाँ तरू को काटना।
ठकठक की आवाज पहुँची दूर तक उस गाँव में।
बिशनोई की कौमके सब लोगथे जिस गांव में।
सुनकर कोलाहल मंत्रणा की औरतों ने शिघ्रही।
दूर खेतों मे सभी नर,क्या करें हम शिघ्रही।
चलो करें प्रतिकार उनका,पेड़ का बचना जरूरी।
है पेड़ सबके प्राणदाता,करते सबकी आस पूरी।
गृहिणियों के उस समूह में अमरता हूँ लरज बोली।
धर्महित मे प्राण का मोह छोड़ दें यूं गरज बोली।
कौन ऐसा है कहो जो आके यहाँ जाता नहीं है।
हर किसी को धर्मरत मरने का दिन आता नहीं है।
करमा गोरा थी भाग्यवाली वृक्षहित निजदेह त्यागी।
एचरा बूचाजी था जिसने तरुहित देह त्यागी।
रतनी भागू साथ लेकर चल पड़ी थी वो दीवानी।
जीतेजी कोई काट जाए खेजड़ी तो धिक जवानी।
औरतें पीछे चली,घर काम सारा छोड़ करके।
खेजड़ी जीवित रहे,पहुंची सभी वहाँ दौड़ करके।
काटिये मत खेगड़ी को,प्राणदायी पेड़ है ये।
नर पशु को तृप्त कर दे जीवनदायी पेड़ है ये।
राजमद में चूर वो नर,बात कैसे मान लेता।
रोको,न काटो खेजड़ी को,कैसे वह फरमान देता।
राजहित में खेजड़ी का,काटना बेहद जरूरी।
बाधा बनो मत काममे,हम से बना लो आप दूरी।
हार कर बोली अमरता,व्यर्थ जब देखा अनुनय।
प्राण देकर के बचाये पेड़,यह सस्ता विनिमय।
आओ सभी हम चिपक जाएं, खेजड़ी को माँ समझकर।
खेजडी को छोड़ देंगे,हमको ये औरत समझकर।
पर घमण्डी चूर मदमें,राजमद की था ठसक में।
देखता था जो बगावत औरतों की इस कसक में।
छोड़ दो तुम खेजड़ी को,भाग जाओ अब यहाँसे।
बाधा बनी तो खेजडी सँग तुम कटोगी अब यहाँसे।
पुत्री से बोली अमरता,पेड़ से हम चिपक जाये।
सांस तन मे जब तलक है,खेजडी को छू न पाये।
सत्य हैं मृत्यु परन्तु मौत ऐसी कब मिलेगी।
वृक्ष खातिर जान देने की घड़ी फिर कब मिलेगी।
जान जब तक शेष तन में,बचे पेड़ यह धर्म अपना।
जीव जंगल को बचाना हर बिशनोई का है सपना।
कटने लगी थी नारियां पर थी सुरक्षित खेजड़ी।
कराह रही थी दर्द से बे,खून से लथपथ पड़ी।
कटा किसी का पैर वहां पर,हाथ था किसी का कटा।
सिर मे किसी के घाव था,और था किसी का धड़ बंटा।
खून का तालाब हो गया तीन सौ तेसठ कटे।
पर बचाई खेजड़ी को,विश्नोई नर वहां मिटे।
संहार का जब दृश्य देखा कांपने धरती लगी थी।
ब्यौम झर झर रो रहाथा,पवन की बंधी घिग्घी थी।
खबर जब राजा अभयको,इस अनहोनी की मिली।
श्वेत चेहरा होगया,पांव तले धरती हिली।
स्वयं पैदल चलकर आये,थे उनके सम्मान मे।
खूब पछतावा किया,पगड़ी उतारी मान मे।
गांव का किया नाम खेजडली वहां सम्मान में।
काट न पाये खेजडी को, लिख दिया फरमान मे।
बस्ती हो विश्नोई की, जहां जहां जिस गांव में।
आखेट न होगा कभी,आगे कभी उस गांव मे।
धन्य कैसे लोग थे वे,क्या निराली आन जिनकी।
अमर हुए इतिहास मे वे, क्या निराली शान जिनकी।।