...

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इंसानियत
गिरा था इक इंसान सड़क पर
हादसे से ज़ख़्मी हालत थीं
नज़र सब की थीं उस मंज़र पर
पर मदद की जगह उन्हें उसे तस्वीर में क़ैद करने की आदत थी

पल पल तड़प रहा था जिस्म उसका
मदद के लिए ज़ुबान भी ना ख़ुल पा रहीं थीं
गाडियां गुज़री कई वहां से लगातार
पर इंसानियत की कोई मिसाल मिल नहीं पा रहीं थी

लोग भागे जा रहें थे छुपाकर नज़र
लाज़िम होगा उनके लिए क्योंकि वो ज़ख़्मी उनका अपना न था
देख वो भी रहा होगा अपनी सांसें गिनते गिनते बेरहमी का मंज़र
वो भी सोच रहा होगा कि इन गैरों में क्यों कोई अपना न था

फ़िर हुई भीड़ इकठ्ठा बहुत वक्त गुजरने के बाद
तब तलक वो लाश बन चुकीं थीं
अभी भी लोगों के हाथों से फ़ोन छूटे नहीं थे उस मंज़र को क़ैद करते करते
और कुछ इस तरहां वहां इंसानियत ग़ैर मुकम्मल तलाश बन चुकीं थीं

ब्रेकिंग न्यूज़ चाहिए थी जिनको
उनका काम तो पूरा हुआ होगा
उन्हें फुर्सत कहां किसी की जिंदगी बचाने का
चाहें उस मंज़र में कितना भी बुरा हुआ होगा

इंसानियत को रखो दिल में
बेरहमी हमारी नीयत नहीं होती
होता हैं करूणा ओ रहम का दरिया दिल में
बेदर्दी हमारी फितरत नहीं होती

हमदर्दी भरा दिल बना लीजिए
इंसानियत की पनाह को अपना लीजिए
छोड़ो ग़ैर पराया मुश्किल वक्त में
मदद का हाथ आगे थमा दीजिए

-उत्सव कुलदीप










© utsav kuldeep