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रहनुमा इश्क़


ये कुछ उस रोज़ की बात है,
जब सचिन का बल्ला चलता था,
जब शाहरुख़ क क क किरन कहता था,
जब अटल जी देश चलाते थे,
जब डी डी मेट्रो आता था।

तब वो भी अपने कमरे की
खिड़की पे यूँ इठलाती थी,
बालों को अपने नाज़ुक से,
हाथों से यूँ सुलझाती थी,
बच्चों से रौनक सड़कों को,
वो देख देख मुस्काती थी
क्या चंचल शोख हसीना थी,
नैनों से बाण चलाती थी।

मैं उसके रूप पे मोहित था,
मैं उसका प्रेम पुजारी था,
मैं खूब भटकता सड़कों पर,
वो जब खिड़की पे आती थी।

हाय इश्क़ की महफ़िल सजती
बस मेरे रसिक ख्यालों में,
वो मोहतरमा इतराती थी ,
अपने अब्बू के महलों में,

मैं इक आशिक़ बंजारा सा,
उसके ख्वाबों में जीता था,
पर माली हालत से अपनी,
कुछ भी कहने से डरता था।

फिर इक दिन अल्लाह करम हुआ
वो रहमत बनकर आयी घर,
मैं मानो सुद्बुत खो बैठा
मुझमे सुरखाब के लग गये पर।

मैं आव भगत करने बैठा,
वो शर्माती सी बोली तब-
"जो प्यार किया तो कह भी दो
कब तक मुझको तड़पाओगे ?
इश्क़-ए-इज़हार करोगे कब?
कब मुझको इस घर लाओगे?"

मैं मानो जन्नत जा पहुँचा,
और मानो अमृत पान किया,
के साथ था उसका संजीवन
के मानो जीवन दान मिला ।

झट कपड़े हुलिया ठीक किया,
और उसके घर मैं जा पहुँचा,
अब्बू को उनके नमन किया,
और हाथ मैं चट से मांग पड़ा।

वो गुस्साए ,उफनाए से,
हुक्के को धक्का दे बोले-
"है क्या तेरी औकात भला?
जो बेटी को मेरी तोले?"

मैंने तो खूब मनाया भी,
और हाथ जोड़ समझाया भी,
ज़िद तोड़ी न, न माने वो,

मैंने भी था अब ठान लिया,
मैंने भी हीर को दिया वचन।
मैं वापस जल्दी आऊंगा,
तू फ़िक्र न करना महबूबा।
मैं तुझको ब्याह ले जाऊंगा।

दो साल को महनत खूब करी
और रुपया लाख कमा लिया,
जा पहुचा वापस उसके घर
और पाया अपना प्यार वहाँ।

फिर धूम धाम से ब्याहा भी
दुल्हन को अपना घर लाया,
बस शिद्दत के चलते यारों
मेरे प्यार को संग मेने पाया ।

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