...

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रहनुमा इश्क़


ये कुछ उस रोज़ की बात है,
जब सचिन का बल्ला चलता था,
जब शाहरुख़ क क क किरन कहता था,
जब अटल जी देश चलाते थे,
जब डी डी मेट्रो आता था।

तब वो भी अपने कमरे की
खिड़की पे यूँ इठलाती थी,
बालों को अपने नाज़ुक से,
हाथों से यूँ सुलझाती थी,
बच्चों से रौनक सड़कों को,
वो देख देख मुस्काती थी
क्या चंचल शोख हसीना थी,
नैनों से बाण चलाती थी।

मैं उसके रूप पे मोहित था,
मैं उसका प्रेम पुजारी था,
मैं खूब भटकता सड़कों पर,
वो जब खिड़की पे आती थी।

हाय इश्क़ की महफ़िल सजती
बस मेरे रसिक ख्यालों में,
वो मोहतरमा इतराती थी ,
अपने अब्बू के महलों में,

मैं इक आशिक़ बंजारा सा,
उसके ख्वाबों में जीता था,
पर माली हालत से अपनी,
कुछ भी कहने से डरता था।

फिर इक दिन...