...

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नदी ऐसे ही नहीं सूखती है...
नदी ऐसे ही नहीं सूखती है
सूखने से पहले जूझती है

पहाड़ों से निपत्त होकर
पत्थरों का मत्त धोकर
बंजरों के पिंजरों पर
जीवन का सत्त बोकर
नदी ऐसे ही नहीं उगती है
उगने से पहले उठती है

कारखानों से केमिकल लेकर
गंदनालों‌ ने गंदमल देकर
किनारों से धारों का मोड़ना
फूलमालों के दल-दल लेकर
नदी ऐसे ही नहीं सड़ती है
सड़ने से पहले सहती है

कटानों में राह भटककर
वितानों से बाह समेटकर
जंगलों के मंगलों का कटना
पैमानों में‌ चाह लपेटकर
नदी ऐसे ही नहीं घटती है
घटने से पहले सिमटती है

© विपिन कुमार सोनी
29/30/31.05.2024
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