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रूबरू
छंटे अंधकार की काली बदली, तो फिर उजियारा होता है,
बीते गहन अमावस काली रात, तो फिर चांद उदित होता है।
जब थमती है मूसल वारिस, तब इंद्रधनुष खिलता है,
सप्त रंग की आभा खिल, नभ मनमोहक करता है।

क्या बिना तपे सूरज के कभी, यह जग जगमग होता है?
क्या बिना जले इंधन के कभी, इंजन सरपट चलता है?
कांटो का संरक्षण पा निर्भय, गुलाब पुष्प खिलता है,
प्रेमी युगल को बांध बंधन में, स्नेह रंग भरता है।

क्या बिना सहे वार छेनी की, पाषाण मूर्ति बनता है?
क्या बिना तपे लोहे के, कल का पुर्जा चल सकता है?
तराश स्वर्ण को स्वर्णकार, नाना आभूषण गढ़ता है,
तन का कर श्रृंगार रूप में, चार चाँद लगता है।

क्या बिना झरे निर्झर झरने, मरु की प्यास बुझा सकते है?
क्या बिना तपे नभ में कभी, तारे टिमटिमा सकते है?
गलते है बीज धरा-उदर में, हरियाली लहराती है,
जनमानस के मन में तब, खुशहाली छा जाती है।

क्या बिना पीसे सिलवट्टे पर मेंहदी, गाढ़ी रंग ले आती है?
क्या बिना कटे करघे पर कपास, कभी सूत बन पाती है?
मां की आन बचाने में बेटों की, शीश आहुति चढ़ जाती है,
रक्तरंजित डोली में चढ़ कर, आजादी घर में आती है।

© मृत्युंजय तारकेश्वर दूबे।

© Mreetyunjay Tarakeshwar Dubey