...

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*खुशियों के रंग बनकर*
इस बार होली पर नहीं आए, बेटा और बेटी घर,
आऐ थे पिछले फागुन, खुशियों के रंग बनकर।

मां कर रही मन हल्का, कहे बच्चों की परीक्षा है,
है छोटू निराश, भैया संग रंग खेलने की इच्छा है,
बच्चे भी बैठे बेरंग, दिल्ली, मुंबई और इंदौर में,
खोऐ हैं पिछले कई सालों के, रंगबिरंगे ख़्याल में,
इस बरस परीक्षा पर, होली रही है बहुत अखर,
इस बार होली पर नहीं आए, बेटा और बेटी घर..

पिता के चेहरे पर, वैसे दिखा कोई मलाल नहीं है,
लेकिन कागज़ की पुड़िया में, खुश गुलाल नहीं है,
पिता ने नन्हें बच्चों को, रंग लगा मन बहलाया,
तब जाकर पापा के हाथों में, लगा रंग मुस्काया,
ज़्यादा नहीं, पर हुआ मन पर, कुछ भला असर,
इस बार होली पर नहीं आए, बेटा और बेटी घर..

खुशरंगों पर बच्चों का, अनिश्चित भविष्य भारी है,
बदलता, वर्ष दर वर्ष बदलता, माहौल त्यौहारी है,
बच्चों को असमंजस देते हैं सपने, और अपने भी,
होली के रंग हो जाते हैं फीके, लगते हैं थकने भी,
तन पर लगता है रंग, मन ही बस नहीं होता है तर,
इस बार होली पर नहीं आए, बेटा और बेटी घर..

इस बार होली पर नहीं आए, बेटा और बेटी घर,
आऐ थे पिछले फागुन, खुशियों के रंग बनकर।