...

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स्त्री एक काव्य
लेकर जन्म एक स्त्री की देह में,
जब काव्य जन्म लेता है,
उस काव्य को ना जाने खुद को,
कितने रिश्तों के मोतियों में पिरोना होता है..!

देह स्त्री की जन्म लेती है जब,
एक स्त्री की देह से,
तो बंध जाती है दोनों स्त्रियां,
बंधन में प्रेम और स्नेह के...!

बनकर बेटी जब एक स्त्री आती है,
पुरुष के जीवन में,
तो करती है पावन पिता पुत्री के नाते को,
प्रेम और विश्वास के पूजन में...!

होती है जब स्त्री एक पुरुष संग,
बहन भाई के नित नाते में,
बांध कर कलाई में धागा प्रेम का,
पाती है प्रेम भाई का तोहफे में...!

होकर तरुणी जब स्त्री,
बन जाती है किसी तरुण की प्रेमिका,
तो करके न्योछावर अपने प्रेम को तरुण पर,
निभाती है एक नई भूमिका...!

जब बन जाती है स्त्री,
किसी पुरुष की अर्द्धांगिनी,
लेकर सात फेरे निभाती है सात वचन,
करके समर्पण स्वयं का प्रणय बेला में,
बन जाती है अपने पति की जीवन संगिनी...!

जब देती है जन्म स्त्री,
एक नन्हे से नव जीवन को,
पिलाती है दूध अपने आँचल से,
करती है पुनः प्रारम्भ नए सृजन को...!

कितने पवित्र रिश्तो की डोर में,
पिरोई जाती है देह स्त्री की,
प्रथम स्वांस से अपने अंतिम स्वांस तक,
किन्तु फिर भी ना जाने क्यों,
लोग समझते है स्त्री को भोग की वस्तु,
आखिर क्यों करते है अपमान स्त्री का,
क्यों देते है गालियां बहन और मां की,
क्यों सोचते है कि आवश्यक है स्त्री देह,
केवल सुहागरात की सेज पर...!

© Rohit Sharma "उन्मुक्त सार"