...

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तुम कौन थे ?
बिखरे थे हम बादलों की तरह,
चाह बस बारिश बन बरस जाने का था
नीचे दरिया को बहते देख,
उसमें गिर के मिल जाने का था
हम तो पागल आशिक़ थे, तुम कौन थे?

हम तो ज़मीं पर गिरे खार की तरह थे,
चाह तो गुलज़ार बन जाने का था
ठिक सामने उसकी बस्ती थी, उसके नज़रों में समा जाने वाला नज़ारा बन जाने का था
हम तो पागल आशिक़ थे, तुम कौन थे?

हम तो हवा थे, चाह तो उसकी खिड़की पर जाके रुक जाने का था
उसके हाथों में एक गुलाब था, हमें उसके ख़्वाब का हकीकत बन जाने का था
हम तो पागल आशिक़ थे, तुम कौन थे?

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