...

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ध्येय...!

...और ... नदी सी बह कर
मैं पूर्ण कर लेना चाहती हूँ
अपना सफ़र...
शीध्रातिशीघ्र,
सफ़र का पूर्ण होना...
जो कि नि'यत भी है और मेरी नियती भी...

धूप के सब रंगों को
एकसार करने की कोशिश में
स्वयं सतरंगी हो कर
बहती हूँ...
छलकती हूँ...
नभ को भी चुनौती देते हुए से
उस हिम की उथली ओक से...

कई वेश...नए परिवेश में...
यात्रा की सब स्मृतियों को
हृदय में सहेजती हुई
कहीं भागीरथी की गंगा...
कहीं सरस्वती...
और कहीं कावेरी...
न जाने कितने नाम... बदलती हुई

नाम... पहचान तक बदल लेने से
जिसे गुरेज़ नहीं...
बस अपना ध्येय उसे... स्मरण रहता है
"प्रिय, तुम्हारे हृदय में विश्राम लेना...."