...

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मैं ही गलत थी
अनजान राहों से कैसे टकरा गई
एक अशिक़ी था मुझमें
उनको भुलाना नामुमकिन सी
इश्क़ की नैया कब डूब गई
कब्जा किया था मुझमें
फिर भी वो एहसास नयी नयी सी
जब रिवाजों से बाँधी है एक डोर
हर एक कह रहे थे पाकिजा
ना माना मैं, फिर भी मजबूर थी
हंसके भुला दी मैंने खुदको
जब उनके चाहत के ख्वाइश देखी
लगा हमारा अशिक़ी मे ही शायद कमी थी
एक रोज़ नये दौर के आदत सी लगी
कहीं अरसे बाद कुछ महसूस हुई
शायद यह मोहब्ब्त मान चली
एक तहकीक बाकी था मुझमें
असल मे ये एहसास की कोई कीमत ही नही
अब समझी की मैं ही गलत थी
जिसे एहसास की कोई क़दर नही
वो ठुकराकर सुनाता रहा सबको
सुलझाना चाहा जब भी
हर दर्द मे कुछ चुभता हैं
जैसे ज़माने पहले की अशिक़ी
कोई ऐसा समझने वाला था
दिल से आँखों पे उतरी वो बातें थी

© Afi@