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गाली.. एक अभिशाप

गाली... एक अभिशाप

बड़े बनते हो तुम हे पुरुष
अधिकार भी जताते हो
मर्जी ना हो फिर भी तुम
हर बार जीत जाते हो
मां बहन बेटियों को तुम
स्वरूप देवी का मानते हो
संस्कार और मर्यादा से न हो खिलवाड़
अक्सर ये याद रखते हो

फिर जब आहत होते हो तुम
या कुचले जाते है अभिमान तो
क्यों हर बार भूल जाते हो
झूठे अहंकार को बचाने में
तुम स्त्री की मर्यादा को ही
तार तार कर जाते हो
अपशब्द बोलने में एक बार भी
भी घबराते हो
बात बात पर अपनी ही मां
के दूध को कलंकित कर
मन ही मन इतराते हो

भूल कर शब्दो की मर्यादा
तुम स्त्री को ही मर्यादा का
बेमतलब पाठ पढ़ाते हो
उठाते हो पत्नी की परवरिश पर उंगली
मां शब्द का अर्थ तक भूल जाते हो
भाई भाई में हो कलेश तो
फिर बहन को भी भूल जाते हो
कैसी है विडंबना समाज की
तुम क्यों समझ नहीं पाते हो
आपसी मतभेद में अक्सर
मां बहन की इज्जत भी भूल जाते हो

शर्म तनिक न आती तुझको
क्यों इंसान कहलाते हो
हसीं मजाक हो या हो झगड़े
एक स्त्री को ही गाली दे जाते हो
क्या कहूं इनके आगे मैं
खुद ही सोच ना पाती हूं
उस मां के दूध का कर्ज शायद
तुम इन गालियों से चुकाते हो
समाज आज भी नही बदला है जहां दो पुरुषो की लड़ाई में भी गालियां मां बहन बेटी को
ही दी जाती है🙏🙏🙏😔
© kajal