...

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उलझता दिल.. बिखरता मै
लोगों की उलझन ये है,
कि उनकी रात नही कटती..
मेरी अलग उलझनें है
मेरे पलको के द्वारे
गिरते पडते ही बे सहारे
पौ फटने के पहले तक
एहसान कर जाती है नींद
मगर मै उसपर जरा भी
एहसान नही करता.. और
सूरज की लालिमा देखते ही
उसके आगोश से
बंधनमुक्त हो जाता हूँ
जगत के हर रीवाजों मे
सोना मुझे बिलकुल अच्छा नही लगता....
मै समझता हूँ
सभी तन्हा व्यक्ति को होगा
क्यूंकि ,उनके बिस्तर ..
कहाँ आरामदायक होते है
मुझसे पूछे कोई..??
कितने नुकीले ...
अनगिनत शूल होते है
मगर...
मेरी परेशानियां ..
कहाँ खत्म होती है..??
आंख खुलते ही
तमन्नाओ का तडपना..
चाहतों की चाहतें..
बेकरारियो की बेकरारी,
कोलाहल मचाती है
कान सुनने को मचल जाते है
ऐ... उठो न...देखो ..
भोर की बेला सुहानी..
ऐसी ही कोई मेरी दीवानी..
अपनी भींगी जुल्फें
मेरे चेहरे पे डाल उठाती मुझे..
और मै
भर लेता बिना...