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कहती प्रकृति तुम सुनो मुझे
ये नदियां, ये झरने
ये पहाड़, ये वन
है सब मेरे ही तो अंग।
मुझ से चलता चक्र ऋतुओं का,
मुझि से है संतुलन सबका।
मुझमें वास करता मानव,
मुझि में है वास जीव जंतुओं का।
जीवन मुझि में पाते ये,
अंत मुझि में होता इनका।
पूजते मुझे विविध रूप में,
महत्व को मेरे था समझा जाता।
पर तहस नहस हो गया है सबकुछ
जबसे है ये पैसा आया।
मां सा सहकर भी मैंने जिन्हें पाला,
आज वही दे रहे मुझे विष प्याला।
झेलती भी आयी हूँ, उठती भी आयी हूँ।
पर उठना मेरा तुम्हे न भाता
क्योंकि यह हजारों कष्ट लाता।
अब तुम ही कहो
कब तक देते रहोगे यह विष प्याला?
© Joginder Thakur
ये पहाड़, ये वन
है सब मेरे ही तो अंग।
मुझ से चलता चक्र ऋतुओं का,
मुझि से है संतुलन सबका।
मुझमें वास करता मानव,
मुझि में है वास जीव जंतुओं का।
जीवन मुझि में पाते ये,
अंत मुझि में होता इनका।
पूजते मुझे विविध रूप में,
महत्व को मेरे था समझा जाता।
पर तहस नहस हो गया है सबकुछ
जबसे है ये पैसा आया।
मां सा सहकर भी मैंने जिन्हें पाला,
आज वही दे रहे मुझे विष प्याला।
झेलती भी आयी हूँ, उठती भी आयी हूँ।
पर उठना मेरा तुम्हे न भाता
क्योंकि यह हजारों कष्ट लाता।
अब तुम ही कहो
कब तक देते रहोगे यह विष प्याला?
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