...

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ज़िन्दगी की कहानी...
"ये ज़िन्दगी है दो दिन की"
कैसी है ये कहावती,
जो लगती है बड़ी अजीब सी,
पर यही तो है सच्चाई।
कभी थे हम छोटे नतखते,
फिर आयी ये जवानी रंग फेरते,
गुजर गए वो भी हस्ते कूदते।
देखना पड़ा वह दिन ना चाहते,
जो सबके नियत में ना होते,
ये वक़्त को बोलते है बुढ़ापे।
यही वह चरन है जो आखरी कहलाती,
क्यूंकि इसके बाद तो सिर्फ मौत हात फैलती,
जो बहुत दर्दनाक सी जान पड़ती,
इस हकीकत से भागने का हिम्मत कीसिका नहीं।
पर इसी दो दिन के खेल में,
कैसा हमने खेला वहीं हमारा हल है।
क्यूंकि मरते वक़्त सिर्फ एक चीज की जरूरत होती,
और वह एक चीज चैन होती ।
तो प्यारो ज़िन्दगी के हर पल ऐसे जिओ जैसे पछताना ना पड़े।