...

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फर्क़ नहीं पड़ता है
वो हर बात पर कहती है ,
उसे किसी से उम्मीद नहीं
उसे फर्क़ नहीं पड़ता है
फिर भी नम आँखों को उसे
काले चश्मे से छुपाना पड़ता है
मन की उखड़ी बातों को
काग़ज़ पर उतारना पड़ता है
एक झूठी मुस्कान में
इस सच को छुपाना पड़ता है
कि दिल उसका भी टूटता है
ठेस उसको भी लगती है
उम्मीद के आँचल में
ना उम्मीद उसकी भी सजती है ।।

वो हर बात पर कहती है
कोई नहीं होता है
इतनी बड़ी बात नहीं है
उसे फर्क़ नहीं पड़ता है
पर फिर क्यूँ उसके मन में
सवाल उठता है
क्यूँ उसके साथ ही ऐसा होता है
आँखों में साथ हो कर भी
अकेले होने की मायूसी होती है
बातों में ना समझ पाने की
चिढ़ होती है
क्यूँ मन में उठता बवाल है
जो जवाबों के ना होने से
होता और परेशान है।

वो हर बात को , मन के भाव को
अपने तक ही रखती है
कोई नहीं है सुनने को
उसकी बातों को समझने को
ये जानकर भी खुद से कहती है
मुझे कोई फर्क़ नहीं पड़ता है
फिर भी क्यूँ आँखें ढूँढती है,
उस एक अपने को
जिसके पास थोड़ा सब्र हो
कुछ कहने को हो ,
तो कुछ सुनने को भी हो
इस भीड़ में कोई उसे
" मैं हूँ ना " कहने वाला भी हो ।

क्यूँ फर्क़ नहीं पड़ता है
कहकर भी वो खुश नहीं हो पाती है
मन के अँधियारे में
वो जीवन को सिमटा पाती है
इस दिल के जज़्बातों को
सुनने वाला चाहती है
दो सुकून के पल वो
बस खुद के लिए जीना चाहती है ।

क्यूंकि हर पल वो ,
खुद से ही लड़ती है
फर्क़ उसे नहीं पड़ता है
इस दिल को कहती है
ख्वाहिशों को कहीं
परतों में छिपा देती है
इस दिल को पत्थर बना देने की
नाकाम कोशिश करती है
इस भीड़ के अकेलेपन में वो
अकेले जीने की चाह रखती है
धीरे- धीरे वो खुद को
खुद में ही सिमटना चाहती है
कोई तोड़े इससे पहले वो
मजबूत बनना चाहती है
अकेले आए हैं,
अकेले ही जाना है
बीच में मिले घाव को
वो अनदेखा करना चाहती है
उसे फर्क़ नहीं पड़ता है
बस इस बुद्धू मन को
समझाना चाहती है
कुछ झूठ कुछ सच का
जीवन का तराना है।

© nehaa