...

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पतंग
अम्बर की उँचाइयों में मगन फिर से
आजाद मार्ग में पतंग की फतेह है
देख रहा हूँ अपने बचपन को फिर से
मन हिलोरे ले रहा है फिर भी संदेह है

ढूंढ रहा हूँ मैं वो हरे-भरे बाग-बगीचा
जहाँ खूबसूरती से बचपन को है सींचा

वो कागज की पतंग में लगी पूँछ उड़ती थी
जहाँ गोंद की जगह,भात को ही मिलती थी
कैसी भी हो राहें....पतंग में मन मस्त हो जाता
तब कूदते-फांगते आँखे अंबर हो जाती थीं।
© मलंग