...

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कैसे शहर में आ गया मैं
बड़ी भीड़ है,
सजीले भड़कीले लिबासों की,
जो पुतलों पे टाँगें फिरते हैं,
अजीब होड़ है
रंगीन मुखोंटों की
हर चेहरे पे चिपके मिलते है,
बढ़ी तल्ख़ी है मिजाज़ में,
अना सराबोर ख़्याल हैं,
कसमकश की रीति हैं,
शख़सियत का मरोड़ है,
कैसे शहर में आ गया मैं,
ये कैसी अजीब दौड़ है।....

दिन सोया है,
रातों को बड़ा शोर हैं,
कहीं जबरदस्ती के सपनें हैं
कहीं वस्ल पुरज़ोर हैं,
खूबसूरत मुजसम्मे हैं,
धड़कन कहीं और हैं,
कैसे शहर में आ गया मैं,
ये कैसी अजीब दौड़ है।....

उन्स है,
हक़ूक़ है,
रंजिश भी बा दस्तूर हैं
लबों पे ख़ामोशी हैं,
लेक़िन औज़ारों में बड़ा जोश हैं,
पसरी पड़ी है शिकायत की बोरी,
ख़लिश के पहाड़ बेजोड़ हैं,
कैसे शहर में आ गया मैं,
ये कैसी अजीब दौड़ है।....

इमारतों का ढ़ेर है,
दरख़्त की छटाई पे,
धुँआ धुँआ हो रहा रहगुज़र,
हर सफऱ की अगुआई पे,
आब पर छाले हैं,
अब्र निचोड़ डालें हैं,
पंछियों की वतन परस्ती भी ढलने लगी, क़ायदों के पन्नों का अब ढीला सा जोड़ है,
कैसे शहर में आ गया मैं,
ये कैसी अजीब दौड़ है।....




























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© maniemo