...

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स्वयं की खोज
मैं स्वयं को न जाने कब से ढूँढ़ रहा हूँ

सामान्य से लेकर विशेष से भी मिला
चेतन से ही नहीं जड़ से भी पूछ रहा हूँ
मैं स्वयं को न जाने कब से ढूँढ़ रहा हूँ

कहाँ से आया हूँ कहाँ जाना है मुझे
आवारों की तरह दर दर भटक रहा हूँ
मैं स्वयं को न जाने कब से ढूँढ़ रहा हूँ

आशा चली गई अब निराशा ही बची है
पागलों की तरह फिर भी पूँछ रहा हूँ
मैं स्वयं को न जाने कब से ढूँढ़ रहा हूँ

उपाय तो बड़े से बड़ा सुन लिया हमने
अंधेर नगरी में फिर भी घूम रहा हूँ
मैं स्वयं को न जाने कब से ढूँढ़ रहा हूँ

लोगों के उत्तर भी अब प्रश्न लग रहे हैं
तू नहीं मिलेगा अब यहीं सोच रहा हूँ
मैं स्वयं को न जाने कब से ढूँढ़ रहा हूँ
© आनन्द