...

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इंसान का किया भावंडर
कितनी ही मुश्किलों से गुजरता है इंसान।
जीने के लिए रोज़ मरता है इंसान।
इच्छाओं के भंवर में फंसता ही जा रहा,
पुण्य के चादर ओढ़े पाप करता ही जा रहा,
कितनी भी भरले उड़ान चाहे पार कर ले आसमान।
पांव रखना है आकर ज़मीन पर रे इंसान।
रेत कि मंजिल कि तरह फिसलता चला ,
जब बुलंदियों से गिरता है इंसान।

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