...

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ग़ज़ल
जब इरादा था दूर जाने का
क्यों किया वादा पास आने का

ज़ीस्त है गर सराब जैसी तो
फ़ायदा क्या था आज़माने का

वक़्त-ए-आख़िर हुआ मुझे एहसास
ज़िंदगी नाम है गँवाने का

ग़म खरीदा है मुफ़्त में मैंने
टैक्स देता हूँ मुस्कुराने का

ज़िंदगी नाम इश्क़ के कर दी
देख लो हाल उस दिवाने का

मात अपनों से गर मिली मुझको
ग़म नहीं मुझ को हार जाने का

वक़्त को मैं ख़रीद लूँ जिससे
तुम पता दे दो उस ख़ज़ाने का

साथ तेरा "सफ़र" में मिल जाए
डर नहीं मुझको फ़िर ज़माने का
© -प्रेरित 'सफ़र'