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उपालम्भ
आत्म परित्राण में परित किए आच्छादित कितने आवरण।
स्व वपु परिपोषण हेतु किए भक्षण तनु कितने आमरण
प्रभु पार्थिव पर्वत पर प्रदूषित हैं स्रोतस्विनियां अथाह
ग्लानी से परिपूर्ण संपूर्ण असु में भी तो है असुरभि प्रवाह
मन को मथता मदन मनमोहन मधु में मन्द मरुत प्रसार
दावाग्नि से भीषण जठराग्नि से तीक्ष्ण कामाग्नि का विस्तार
मन उर्वरा पर उपजा अति कलुषित कामना कानन
राग द्वेष के शेष जहां क्षुदा से फैलाए रखते आनन
पंचतत्व निर्मित सुवृत्त अनावृत्त दस द्वारों का कारागार
आधि- व्याधि के मल्ल जो पल पल प्रलय सा करते प्रहार
अंडज जेरज स्वेदज उद्भिज रज-वीर्य प्रवाह सर्वत्र
क्षुद्र जंतुओं में भी शामिल मानता अहम् स्वयं को पवित्र
सदा स्वजनों के शवों को ढ़ोती करती घोषित प्रलय की निशा
करती सहन ,वहन सब करती हाय रे ये जिजीविषा
दण्ड पर दण्ड दिए प्रचण्ड प्रभु आखिर किस अपराध के हेतु
काम क्रोध मद लोभ मत्सर के निर्मित किए किसने? ये केतु

हृदययुक्त बनाया खिलौना भावनाओं से फिर किया रंगीन
ठोकर मार -मार कर खेले वाह रे खिलाड़ी हृदय से हीन

धन्यवाद

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