...

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आखिर मेरी भी कुछ मजबूरी है।
#मजबूरी
झूठ नहीं मजबूरी है,
तुम क्या जानों मेरे लिए क्या क्यों ज़रूरी है;
नंगे बदन की भी अपनी धुरी है,
आखिर मेरी भी कुछ मजबूरी है।

झूठ नहीं मजबूरी है,
तुम ना जानो जीने के लिए,
पैसे कितने जरूरी है,
आखिर मेरी भी कुछ मजबूरी है।

झूठ नहीं मजबूरी है,
खबर नहीं तुमे,
कितने जुल्म ‌ सहेती में
बंद दरवाजो के पिछे
आखिर मेरी भी कुछ मजबूरी है।

झूठ नहीं मजबूरी है,
तुम क्या जानो,
पैसों के लिए अपना ईमान बेचना ,
कितना मुश्किल है,
तुम क्या जानो,
घुट घुट कर जीती मैं,
आखिर मेरी भी कुछ मजबूरी है।

झूठ नहीं मजबूरी है,
कोई अपना छोड़ गया मुझे,
इस अनजाने जंगल में,
रोज इंतजार करती मैं इस आस में,
कोई राजकुमार आएगा मुझे बचाने,
आखिर मेरी भी कुछ मजबूरी है,

झूठ नहीं मजबूरी है,
पर वो तो छोड़ गया,
केवल चंद पैसों के लिए,
इस वीराने में किसी और के संग कंजरी बनाके,
आखिर मेरी भी कुछ मजबूरी है।

झूठ नहीं मजबूरी है,
दुनिया घुरे मुझे,
जैसी सारी गलती मेरी है,
पर कोई न जाने,
क्या मेरी कहानी है,
आखिर मेरी भी कुछ मजबूरी है।

झूठ नहीं मजबूरी है,
तुम क्या जानों मेरे लिए क्या क्यों ज़रूरी है;
नंगे बदन की भी अपनी धुरी है,
आखिर मेरी भी कुछ मजबूरी है।

© Hidden Writer