...

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भूल गए
मुक़ाम की तलाश में
माझी को भूल गए
उस मुक़ाम का
मिलना भी क्या
जिसमें इस मुर्शद की
इबादत को भूल गए

लाख करे सजदे
आकर दर इसके
उस सजदे से
इसे लेना ही क्या
जिस सजदे में इसकी
इनायत को भूल गए

उलझें है यू झूठे
इश्क़ की तलब में
इस तलब से भला
नफ़ा होगा भी क्या
रुह-ए-इश्क़ की जो
इस तलब को भूल गए।

© अनिल अरोड़ा "अपूर्व "