...

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एकाकी
जब कभी भी मैं खुद को
एकाकी पाता हूं
सुनता हूं प्रकृति की सरसराहटे
कुछ खुद से ही गुनगुनाता हूं
जब कभी भी मैं खुद को
एकाकी पाता हूं ....

जिस ओर राह चल पड़े
उस ओर निकल जाता हूं
मंजिल की ओर दौड़ते झुंड
को देखता हूं
पर मैं मंजिल को भुला
राहों को ही अपनाता हूं
जब कभी भी मैं खुद को...

एक ही खुला मैदान है
घर के पास मेरे
मैं उसी‌ खुले मैदान में
चला जाता हूं
अट्टालिकाएं और
द्रुतगती मार्ग नहीं
मैं आकाश को शुभ्र - श्याम
बादलों और विविध परिधानों
में देखना चाहता हूं
जब कभी भी मैं खुद को ....

मिलना औरों से हर‌‌ दम ही
होता रहता है
एकाकीपन में मैं खुद से
ही‌ मिलने जाता हूं
यूं नहीं कि और नाते नहीं
रखते हैं अहमियत
पर मैं खुद से खुद के ‌नाते को
ही सबसे अहम‌ पाता हूं
जब कभी भी मैं खुद को ....

#Hindi #poems #musings #Life&Life #self
© aum 'sai'