...

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अंतिम घड़ी है
नवयुग की गाथा अब प्राण माँगती है,
इतिहास बनना है तो फिर बलिदान माँगती है।
महाक्रांति, उद्दंडता को, आज ललकारती है,
कुरुक्षेत्र की भूमि फिर लहू का कतरा माँगती है।

निज स्वार्थ में बंधु अब उलझना नहीं है,
धरा के पल्लवों से फिर स्वाभिमान माँगती है।
झूठ का ये तिलिस्म अब जो टूट रहा है,
बुलंद आवाज़ करने की माँ भारती प्रण माँगती है।

राष्ट्र धर्म का जो सतत् चीरहरण कर रहे है,
अवसादग्रस्तों को उखाड़ने को समर्पण माँगती है।
अन्याय पथ के, मदांध जो पथिक हो गये है,
वसुधा, फिर विषैली टहनियों का, शमन माँगती है।

हृदय वेदना से आह्लादित जिनके नहीं हो रहे है,
ऐसे दानवों का, फिर मां दुर्गा, वध और पत्तन माँगती है।
कषाय कल्मष दुर्गंध से देश के द्वार भर गये है,
शीघ्र, बेड़ियों को फिर तोड़ने की तन्मयता माँगती है।

चेत जाओ बन्धु कि भोर अब बहुत हो चली है,
जाग जाओ फिर वतन पर मुश्किलों की ये घड़ी है।
बिखर जाओगे, आक्रोश की गर तुम में कमी है,
झाँसी की रानी भी तो वीरों, अंतिम समय तक लड़ी है।

प्रेम से एक दूसरे को नये सूत्र में पिरोते है,
धर्म - अधर्म की ये ख़ाई, सोचो अब किसने खड़ी की है।
सद्भाव, समभाव की डोर, क्यों आज टूटी पड़ी है,
मतदान की आपके सामने प्रहरियों, फिर से अनुपम घड़ी है।

© Praveen Yadav @SoulWhispers