...

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प्रेम और काव्य
काव्य मे रस और शरीर मे आत्मा
हाँ इतने ही जरूरी हो मुझमें तुम।
नहीं-नहीं .........
सोचो मत.........
तुम स्वतंत्र हो ।
ये तो मेरे मन की व्यथा है....
जो कलम का आलम्ब पाकर निकल रही,
ठीक वैसे
जैसे बरस पड़ते है संतृप्त बादल वायु का आलम्ब पाकर।

😊😊

कभी सोचा है तुमने इन बादलों का आकाश से प्रेम कैसा रहा होगा,
ठीक वैसा जैसा मेरा है तुमसें
हाँ "कुछ पल का साथ और फिर एक लम्बा वनवास,
रह जाती है तो बस व्याकुलता, तड़प और पुनः मिलन की आस।