...

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घर
रोज़ शाम को घर की तरफ़ खींची आती हूँ
हर गली, हर कूचे पर तेरे निशान पाती हूँ...

घर की दीवारें, खिड़कियाँ दरवाज़े जैसे रूठे है तेरे जाने से...
बाकायदा...हर शाम उनसे लिपट के उन्हें मनाती हूँ...

आज भी मेहमान हूँ तेरे इस घर में मैं...
आज भी ज़माने को....इसे अपना आशियां बताती हूँ ..

बस इक कोना हैं यहाँ...फूल पत्तियों का डेरा है वहाँ....
वो मुझे देख के खिलखिलाते है...और मैं उनसे बतियाती हूँ...

© कविता खोसला