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मां के परछाई की उम्र
#छाया की कहानी

वो जुल्फें,
लम्बे खुले केश,
फूले फूले चेहरे पे बने,
वो मुस्कुराहटों के गड्ढे,
अब नजर नहीं आते,
वो साड़ी का किनारा,
और हवा में लहराता वो दयावान आंचल,
जाने कहां सिमट गया,
जाने कौन सी बयार खा गई उसे,
मैं जब बच्ची थी,
देखा करती थी मां को सजते संवरते,
मां जब धूप के कपड़े सुखाने जाती,
बिलकुल इन्ही उपरोक्त गुणों की तरह,
आंगन में मां की परछाई बन जाती,
वक्त ने अपनी चाल चली,
मैं बड़ी होने लगी,
छोड़ मां का आंचल,
किताबें पढ़ने लगी,...